बादशाहत
किसी को उजाड़ कर बसे तो क्या बसे,
किसी को रुलाकर हसे तो क्या हसे।
बसों ऐसे कि दिल में जगह बने गैरों के लिए,
हँसो ऐसे कि ठहर जाएँ बहते आंसू,
लौटे मुस्कान सहज, जी चाहे और जीने के लिए।
ज़मीं की बादशाहत होती है तीर से तलवार से,
लाशों के ढेर पर बैठे रोते हैं ऐसे बादशाह
जब पलटता है ताज-ओ-तख़्त जनता के वार से।
याद करो ऐ सिरफ़िरो,
कोई नहीं बचा था फ्रांस का नोबिल,
जब जनता उठ खड़ी हुई थी बंधी एकता के तार से।
राज करना है अगर जनता-जनार्दन पर,
त्याग दो ऐश-ओ-आराम की चाहत।
सेवा करो, देश की, समाज की,
धुन गाओ जन गण मन के साज़ की,
तभी मिलेगी जो चाह रहे हो वो राहत।
तुम्हारे कदमों में होगी बादशाहों की बादशाहत .
सुसंगठित क्रान्ति
घिरा हुआ हूँ चिंतन-शून्य भीड़ में,
जो पिसते हुए भी रात-दिन चीखती है शान्ति,
चाहता हूँ सुसंगठित क्रान्ति।
जहां घृणा की नियोजित ज्वाला में
युवा शिक्षार्थियों के जीवन स्वाहा हो रहे,
गालियां के प्रहार बहनों पर हो रहे,
बलात्कार जहां संस्कृति है,
गोली मारो सालों को के नारे गूँज रहे,
कुशासन का दमन चक्र है चल रहा,
ऐसे में नहीं वांछित शान्ति,
घिरा हुआ हूँ चिंतन-शून्य भीड़ में,
जो पिसते हुए भी रात-दिन चीखती है शान्ति,
चाहता हूँ सुसंगठित क्रान्ति।
चिंगारियां दिखती हैं चारोऔर मेरे
पर नहीं है ताप उनमें,प्रहार का,
संकल्प जो ले सकें दुष्टों के संहार का।
कायरता को सहिष्णुता में ढ़ांपना,
डस गयी है सबको भयानक भ्रान्ति,
घिरा हुआ हूँ चिंतन-शून्य भीड़ में,
जो पिसते हुए भी रात-दिन चीखती है शान्ति,
चाहता हूँ सुसंगठित क्रान्ति।
शोले हैं किन्तु व्यवस्था का अभाव है,
युगों युगों की ग़ुलामी का यहां प्रभाव है।
चाह है आत्म- सम्मान और विश्वास की,
संगठित अनुशासन के विज्ञान की।
बस चलते जा रहे, दिशाविहीन आसार है
ज़हन में शून्य चिंतन का अन्धकार है .
भोले इस समाज में कैसे मिटेगी भ्रान्ति
घिरा हुआ हूँ चिंतन-शून्य भीड़ में,
जो पिसते हुए भी रात-दिन चीखती है शान्ति,
चाहता हूँ सुसंगठित क्रान्ति।
भीड़ का शोर है चारो और मेरे,
स्वर भी बन चुके हैं बस जुआ.
कोई मेरी भी कैसे सुने,
जहां सियारों की हो हुआ-हुआ .
भीड़ में होंगे कुछ सिंह भी,
किन्तु वे भी निगल रहे हैं भ्रान्ति,
घिरा हुआ हूँ चिंतन-शून्य भीड़ में,
जो पिसते हुए भी रात-दिन चीखती है शान्ति,
चाहता हूँ सुसंगठित क्रान्ति।
सब बोलते हैं संगठन में है शक्ति छुपी,
किन्तु भीड़ इसका भाव नहीं,
संगठन सुरों की ताल है
ज्ञानपरकपरक अनुशासन जिसका प्रभाव है.
क्रांति के लिए ऐसा संगठन चाहिए,
भीड़ भी थोड़ी बहुत हो, अनुशासन पूरा चाहिए.
केंद्र से संचालित हो, ना हो कोई भ्रान्ति,
घिरा हुआ हूँ चिंतन-शून्य भीड़ में,
जो पिसते हुए भी रात-दिन चीखती है शान्ति,
चाहता हूँ सुसंगठित क्रान्ति।
अब सत्ता की भक्ति में ठिठक रही है क्रांति,
अत्याचार सत्ताधारी करते, क्रांतिकारी भोग रहे,
कहीं हत्याएं, कहीं बलात्कार,
कहीं बहनों को गालियाँ, कहीं भेजे जाते कारागार.
जब सब कुछ हमको ही सहना है,
कैसे कहें इसे क्रान्ति,
घिरा हुआ हूँ चिंतन-शून्य भीड़ में,
जो पिसते हुए भी रात-दिन चीखती है शान्ति,
चाहता हूँ सुसंगठित क्रान्ति।
अवसर पाते ही बरसें गोले, लें बदला निर्मम हत्याओं का,
कर दें मूक उस वाणी को, जो बहनों को देती गाली
जिस दिन होगा ऐसा, कहलायेगा रुधिर तभी,
वरना सब बहता पानी है, जो खौलता है नहीं कभी
उठो जवानो उठो किसानो हुंकार तुम्हारी हो भयंकर,
त्याग दो अब शान्ति,
घिरा हुआ हूँ चिंतन-शून्य भीड़ में,
जो पिसते हुए भी रात-दिन चीखती है शान्ति,
चाहता हूँ सुसंगठित क्रान्ति।
हिंसा के दमन हेतु प्रतिहिंसा चाहिए,
वरना हिंसा होगी विजित, मिट जाएंगे क्रांतिकारी सब,
दुष्कर्मी हों भयभीत सभी, उनको मौत का भय चाहिए,
तभी करेंगे सच्चा सौदा, दुष्कर्मी क्रांतिदूतों से,
ऐसी क्रांति से ही उत्पन्न होगी शांति,
घिरा हुआ हूँ चिंतन-शून्य भीड़ में,
जो पिसते हुए भी रात-दिन चीखती है शान्ति,
चाहता हूँ सुसंगठित क्रान्ति।
वो सुबह
जब भारत होगा आज़ाद पुनः
संविधान का रूप सुरक्षित हो
राजनीति धर्म से विलग रहे
अब वो सुबह कभी ना आएगी
कश्मीर रो रहा आज भी,
युवा बंद हैं सुदूर जेलों में,
कमाने वाला कोई नहीं
भूख की ज्वाला धधक रही
सुनने वाला कोई नहीं
अबला कोखें सूख रहीं।
सेना ने कितने घर लुटे,
कितनों की लूटी अस्मिता,
इस सबका कोई हिसाब नहीं।
फिर कैसे देखें हम सपना
वो सुबह कभी तो आएगी
कितनों मारे मुठभेड़ों में,
कितनों खेत रहे लिंचिंग में,
बलात्कार हुए, परिवार लुटे,
अपराधी अब भी सुरक्षित हैं।
फिर भी हम देखें दिवास्वप्न
भारत होगा आज़ाद पुनः
तो सुनलो मेरे प्यारो तुम
वो सुबह कभी ना आएगी।
जो हुआ कभी गुजरात में,
वही भारत में होने वाला है।
अपराधी सत्ता में है,
देशभक्त शहीद हुए
या बंद हैं कारागारों में।
दुष्टों ने गोली चलवा दी,
युवा हमारा सोता है -
लगता है तन में खून नहीं,
या उलझ गया दुश्चक्रों में।
होता खून तो लेता उबाल,
कर देता भयभीत दुष्टों को,
कब तक माँ-बहनें सड़कों पर
कब तक गाली खाएंगी,
जब उनके पूत सपूत नहीं,
जब भारत होगा आज़ाद पुनः
वो सुबह कभी ना आएगी।
सत्याग्रह से कुछ नहीं होना,
यह बस मानवीय धर्म है।
जहां मुक़ाबला दानवों से,
वहां मानव धर्म नहीं चलता।
दानवों को ऐसा उत्तर दो
जिससे वो भयभीत रहे,
तभी भारत होगा आज़ाद पुनः
वो सुबह तब ही आएगी।
गृह युद्ध
गृह युद्ध है सामने अब, संविधान बचाने की युक्ति, ,
एक ओर खडे दानव हैं, दूसरी ओर है जन-शक्ति।
दान पर जो पलते थे, उनको दानव जाना गया,
मान हेतु जो जीते थे उनको मानव माना गया।
मानव-दानव युद्धों में, मानवता विजित हुई सदा,
अब भी ऐसा ही होगा, सत्यमेव जयते सदा-सदा।
एक ओर खूंखार शक्ति, दूसरी ओर है देश भक्ति,
गृह युद्ध है सामने अब, संविधान बचाने की युक्ति, ,
एक ओर खडे दानव हैं, दूसरी ओर है जन-शक्ति।
माँ बहनों के बलिदान हम बेकार नहीं होने देंगे,
शाहीन बागों के जलसे, हम खून से अपने रंग देंगे। .
उनके पास पुलिस बल है, अपने पास है नैतिक बल,
जन-जन का सैलाब हमारे साथ खड़ा,
क्या हुआ जो उनके पास है भाड़े का सैनिक बल।
फ्रांस सत्रह सौ नवासी, दुनिया ने देखी जन-शक्ति,
गृह युद्ध है सामने अब, संविधान बचाने की युक्ति, ,
एक ओर खडे दानव हैं, दूसरी ओर है जन-शक्ति।
.
भृष्ट राज सत्ता और न्यायालय दानवों के साथ सही,
श्रमिक और कृषक शक्ति सदा हमारे साथ रही।
दानवों ने जो धन लूटा है, उसके जनक हम ही हैं,
वापिस लेंगे अपना धन, उनकी संख्या कम ही है।
विश्व भर की मानवता, सराहेगी अब जन-शक्ति,
गृह युद्ध है सामने अब, संविधान बचाने की युक्ति, ,
एक ओर खडे दानव हैं, दूसरी ओर है जन-शक्ति।
हम भारत के नागरिक, सब धर्मों का सम्मान यहां,
गीता, क़ुरआन, ग्रंथ साहिब, बाइबिल का है ज्ञान यहां।
हम एक हैं, एक रहेंगे, आपस में कोई वैर नहीं,
कश्मीरी भी हमारे हैं, भारतवासी कोई गैर नहीं।
ये जो प्रमुख दानव हैं, इनकी मिट जायेगी हस्ती,
गृह युद्ध है सामने अब, संविधान बचाने की युक्ति, ,
एक ओर खडे दानव हैं, दूसरी ओर है जन-शक्ति।
मैं शत्रु तेरा
बहुत सहा अपमान मैंने,
देखा तेरा अभिमान मैंने,
मैंने बापू का सत्कार किया,
मैं सहता रहा,
तू कुचलता रहा
जाग उठा हूँ आज मैं
तो सुन ले शातिर -
मैं ही भारत माँ का बेटा हूँ
तू गोडसे का नाती,
देशद्रोह तेरे खून में है,
देशभक्ति में ना हेटा हूँ.
मैं जागा हूँ
कुछ करके ही जाउंगा
तोडूंगा तेरा चक्रव्यूह
देश बचाने की खातिर
जान भी अपनी खोउंगा
अकेला मैं नहीं मरने वाला,
गोडसे की संतति को मैं नष्ट करूंगा
उनके सीनों को छलनी कर
देहों में मैं भूस भरूंगा
दिखा दूंगा मैं दुनिया को
मैं गाँधी विचार का पोषक हूँ,
जिस जिस ने बापू की हत्या की
मैं उनके खून का शोषक हूँ,
तूने मुझको निर्धन जाना,
मैं ही धन का स्रोत हूँ.
तूने नहीं पहचाना मुझको
मैं जो अन्न उगाता हूँ,
तू उसपर पलता है,
मैं जो वस्त्र बनाता हूँ,
तू उनको ही पहनता है .
उत्पादन करने हेतु
मैं ही कारखाने चलाता हूँ.
मेरे परिश्रम का तू शोषण करता
मेरे खून को तू पीता
मुझको आँख दिखाता है
क्या तूने कभी कोई काम किया,
क्या कभी कोई उत्पादन किया
कभी खेती में अन्न उगाया तूने
जब कुछ भी नहीं किया तूने,
तुझे खाने का अधिकार नहीं है,
तुझको हमने अधिकार दिया -
व्यवस्था करने का
प्रतिनिधि हमारी नागरिकता का
तू हम पर प्रश्न उठाता है,
अब हमने यह जान लिया
तू मूर्ख है, छलिया है,
तुझसे व्यवस्था नहीं होगी
अब छोड़ दे खुद गद्दी को
वरना तैयार हो जा मरने को,
खून उतरा है मेरी आँखों में
धू धू ज्वाला जल रही
भस्म कर दूंगा मैं आज तुझे
भावना बदले की पल रही
बहुत सताया है तूने
मेरे भाइयों को तूने मरवाया
आज हिसाब लूँगा तुझसे
तूने अब तक जो जो करवाया .
क्रांति बिगुल
अब अगली सुबह तभी होगी
भारत पाये विषमता से आज़ादी,
परिश्रमी सम्मानित हों
जो सह रहे हैं बर्बादी।
इस गहन अंधकार काल में
गूंजेगी बस एक ध्वनि - आक्रमण
जाग उठेगा इन्सां अब
दिखाने अपना पराक्रम।
पुलिस कर रही जिस तरह पिटाई,
हम देख भी ना पा रहे.
उन पर क्या बीती होगी
जो खुद शिकार हो रहे.
आज मजबूर हैं सब कुछ सह रहे
खून है तो खुलेगा एक दिन
अभी अपना दुःख ना कह रहे
बहुत सही हैं मार पुलिस की
बहुत जेब कटाई हैं,
हम तरस रहे हैं -
रोटी को, वस्त्रों को, छत के साये को
ज़ाहिल मौज उड़ाते हैं,
१२ एकड़ में रहते हैं ,
काजू की रोटी खाते हैं,
जनता में इनको बदबू आती
सुरंगों से आते-जाते हैं।
लाखों रुपयों की पेंशन आजीवन
हम तरस-तरस सह जाते हैं।
ये शासक, प्रशासक इनके,
पुलिस इनकी रक्षा को
जो हमसे नफ़रत करती है,
हमने बहुत सही है मार पुलिस की
जो हमारे टुकड़ों पर पलती है।
न्यायलय भी ग़ुलाम इनके
ये जैसा चाहें, न्याय पाते हैं।
चुनाव आयोग दास इनका,
विधायक खरीदे जाते हैं,
अपराधी शासक बन बैठे
तानाशाही चलाते हैं।
हम मेहनत करते रात दिन
हम ही अन्न उगाते हैं,
कारखाने चलाते हम
सुविधा के सामान बनाते हैं।
हम तरसते रहें अपने घर को
जहां घर-घर जाकर
घर आलिशान बनाते हैं।
सैकड़ों मील पैदल चलकर
मिले हैं हम अपनों से,
पैरों में जो छाले पाए,
याद हमें दिला रहे -
कैसे कैसे दुःख सहे हमने।
इस अंधियारे में मरते रहने से है बेहतर -
कर दें हम दफ़न उनको,
जो सता रहे हैं हमको हर पल।
अब जाग उठा इंसान हमारे अन्दर
इंसानियत का झंडा है,
जो पीते रहे हैं खून हमारा
उनके लिए ही यह डंडा है।
यह जो हरियाली धरती है,
इसमें हम बारूद भर देंगे,े
एक-एक निशाने पर होगा
इनकी चीखों पर अट्टहास करेंगे,
तभी शांत होगा ह्रदय हमारा
जब सुखी होगी पूरी आबादी।
अब अगली सुबह तभी होगी
भारत पाये विषमता से आज़ादी,
परिश्रमी सम्मानित हों
जो सह रहे हैं बर्बादी।
जागो उठो सम्मान बचाओ अपना,
वार करो दुखती रग पर
जब मौका हो अपना .
अपना दुःख सह लेते हैं अक्सर
बच्चे दुखती रग होते हैं.
तुम रोते रोते जाग रहे,
दुनिया वाले सोते हैं .
अब अगली सुबह तभी होगी
भारत पाये विषमता से आज़ादी,
परिश्रमी सम्मानित हों
जो सह रहे हैं बर्बादी।
शाहीन बाग
शाहीन बाग की वीरांगनाओं को
शत शत नमन, शत शत नमन।
जन जान की नागरिकता का सर्वोच्च प्रमाण,
गाँधी विचार में डाल दी फिर से जान।
माँ बहन बेटियों का यह अनूठा चमन,
शाहीन बाग की वीरांगनाओं को
शत शत नमन, शत शत नमन।
गर्मी सर्दी बरसात में रात दिन कर रही कल्याण,
दादियों से लेकर नन्हे बच्चों तक के बलिदान।
कौन कर पायेगा अब इनका दमन,
शाहीन बाग की वीरांगनाओं को
शत शत नमन, शत शत नमन।
बहुत सहे बलात्कार, बहुत देखीं हत्याएं,
ज़ुल्म की आग लांघ चुकी सब सीमाएं।
अब ना सहेंगे तानाशाही दमन,
शाहीन बाग की वीरांगनाओं को
शत शत नमन, शत शत नमन।
एक और हिन्दू सेना के तीर तलवार,
मुक़ाबले पर है शांत सत्याग्रही वार।
स्वतंत्र भारत का यह अद्भुत चरण,
शाहीन बाग की वीरांगनाओं को
शत शत नमन, शत शत नमन।
अब एक नहीं अनेक हैं शाहीन बाग,
फैले हैं पूरे देश में गाते हैं बस एक राग।
हम नागरिक हैं, समर्पित हैं धर्मनिरपेक्ष भारत को,,
कोई कानून बदल नहीं सकता हमारी इस विरासत को।
बागों की यह श्रंखला है लोकतंत्र का दर्पण,
शाहीन बाग की वीरांगनाओं को
शत शत नमन, शत शत नमन।
मोदी-केअर की बहार है
सरकार लूट पर उतारू है – मोदी-केअर की बहार है,
जनता सारी लाचार है .
जेबों में जो पैसे थे, अब फंसे हैं बैंक में,
जो देने को ना तैयार है .
छः लाख करोड़ से ज्यादा जो बांटा है अमीरों में
उसकी वसूली हो जनता से, कैसा अत्याचार है .
सरकार लूट पर उतारू है – मोदी-केअर की बहार है,
जनता सारी लाचार है .
कोरोना विकराल रूप ले रहा,
चिकित्सक जूझ रहे अपनी ही मौत से,
सुरक्षा का सामान नहीं मिल रहा,
सरकार बेपरवाह है .
सरकार लूट पर उतारू है – मोदी-केअर की बहार है,
जनता सारी लाचार है .
निर्धन को भूख सता रही, बेरोजगारी की मार है
महंगाई बढती जा रही, सिर पर मौत सवार है
सरकार लूट पर उतारू है – मोदी-केअर की बहार है,
जनता सारी लाचार है .
सरकारी नेता हो या हो कोई अफसर,
बस इन्ही को जीने का अधिकार है,
काजू की रोटी खा रहे, खून पी रहें गरीब का,
‘सब चंगा सी’ का झूठ ही व्यापार है
सरकार लूट पर उतारू है – मोदी-केअर की बहार है,
जनता सारी लाचार है .
शोषणविहीन शासन व्यवस्था
सुख समृद्धि की कुंजी सुदृढ़ अर्थव्यवस्था है,
उसी तरह, अर्थव्यवस्था की कुंजी पूँजी का निर्माण है.
पदार्थ और परिश्रम के संगम से पूँजी की संरचना होती,
उसी में देश और उसके लोगों का कल्याण है .
पदार्थ प्रकृति देती है - धरती से, सागर से और विस्तृत अम्बर से.
इनका शोषण अनुशासित हो,
इसके लिए ज्ञान चाहिए, आधुनिक विज्ञान चाहिए.
ज्ञान और विज्ञानं उगते हैं जब शिक्षा विकसित हो.
अशिक्षित लोग क्या जानें शिक्षा के प्रभाव को,
भूख में ही याद करते हैं भोजन के अभाव को
उनके लिए फूल बरसाना मूर्तियों पर यही उनका निर्माण है,
पदार्थ और परिश्रम के संगम से पूँजी की संरचना होती,
उसी में देश और उसके लोगों का कल्याण है .
जो मनुष्य परिश्रम करता है,
रूखी-सूखी रोटी खाकर भी अपना पेट भरता है,
स्वास्थ परिश्रम की कुंजी है
जैसे पूँजी परिश्रम की दासी है,
जैसे धरती पानी की प्यासी है.
वैसे ही स्वस्थ वही होगा जो अच्छा भोजन करता है .
ज्ञान विज्ञान की राशि इसका प्रमाण है,
पदार्थ और परिश्रम के संगम से पूँजी की संरचना होती,
उसी में देश और उसके लोगों का कल्याण है .
पूँजी परिश्रम और स्वास्थ सब बने रहेंगे -
यदि समाज में किसी का शोषण ना हो.
छल-कपट से जो धनवान बनते, वे ही शोषण करते हैं.
औरों को भूखा रखकर अपनी जेबें भरते हैं.
इसके प्रबंधन हेतु न्याय की जरूरत है -
जो सबको सभी समय निःशुल्क मिले,
शोषणविहीन समाज में परिश्रम को पुरस्कार मिले.
न्याय व्यवस्था के अधीन बल ही उसका घ्राण है,
पदार्थ और परिश्रम के संगम से पूँजी की संरचना होती,
उसी में देश और उसके लोगों का कल्याण है .
शिक्षा स्वास्थ न्याय हेतु ही शासन व्यवस्था की हुई कल्पना,
किन्तु क्रूरों ने शासन पर अधिकार किया,
जानता के शोषण हेतु, अपनी स्वार्थ सिद्धि हेतु,
पुलिस बल की की संरचना.
जो बनी शोषण की रक्षक, जनहित की भक्षक,
इसीलिये पुलिस शत्रु जनता की, शोषण इसका प्राण है,
पदार्थ और परिश्रम के संगम से पूँजी की संरचना होती,
उसी में देश और उसके लोगों का कल्याण है .
अंततः, दोषी कौन ?
जनता, विवश, भूख से पीड़ित, शोषण की शिकार है,
उम्मीद करें हम उससे विचार करने की -
यह मूर्खतापूर्ण चाह है .
पहले देने होंगे उनको - शिक्षा, स्वास्थ और न्याय,
तभी जनता होगी बुद्धिवादी, अपना शासन स्वयं करेगी.
इसके बाद होगा टकराव - बुद्धिवादी समाज की शासन से,
शासन, जिसकी रक्षा हेतु, पुलिस बल तैनात है -
जो बुद्धिवादियों का शत्रु बनता है .
इस प्रकार दोष पूरा का पूरा - पुलिस की उपस्थिति है.
पुलिस बल समाप्त होने से,
शासन भयभीत रहेगा जनता से,
जनता भी सुरक्षित होगी शोषण से.
शोषण मुक्त समाज ही शिक्षा स्वास्थ और न्याय का प्रमाण है
पदार्थ और परिश्रम के संगम से पूँजी की संरचना होती,
उसी में देश और उसके लोगों का कल्याण है .
अट्टहास तुम्हारा चुभता है.
सुनो सुनो, भारत के धनवान सुनो,
सत्ता के भूखे भेडिये मानव-रूपी हैवान सुनो.
मैं भी भारत का नागरिक हूँ,
परिश्रम मेरा कर्म रहा,
इसीलिये सनातन निर्धनता मेरा मर्म रहा.
मेरे परिश्रम का शोषण करके ही तुम धनवान बने,
तुम्हारी सुख-सुविधाएँ मैंने निर्मित कीं,
तुम मेरे दुख के कृतवान बने.
दुःख में भी मैं जीता था,
भूखा रहकर भी अपने आंसू पीता था,
मैं दिन-रात तुम्हारी सेवा करता,
तुमने मेरे रोजी-रोटी छीने,
मैं भूखा-प्यासा अपने घर जाना चाहा,
तुमने आने-जाने के साधन छीने,
किया मुझे विवश - सैकड़ों मील पैदल चलने को,
पथरीली तपती धरती पर मेरे लहू के निशाँ बनने लगे,
मेरे सिर पर सामान लदा था,
मेरा बच्चा चलते-चलते थका था,
उसकी माँ ने उसकी उंगली थामी
चलते-चलते वह सिसक रहा था,
फिर भी धरती पर खिसक रहा था,
उसकी साँसे गिरीं धरा पर,
काया भी धरती पर सिमट गयी,
मेरे जीवन का अरमां मरा पड़ा था,
लेकिन तुम्हें दया नहीं आयी,
अति व्यस्त रहे वैभव भोगों में,
कहीं तुम्हारी काजू की रोटी ठंडी ना हो जाए,
कहीं तुम्हारी मशरूमी सब्जी बासी ना हो जाए,
तुम्हारे मखमली वस्त्र धुल कण से दूषित ना हो जाएँ,
मेरे बच्चे की मृत्यु पर -
यह अट्टहास तुम्हारा चुभता है.
किन्तु तुम निश्चिन्त रहो,
मैं अभी भी सोया हूँ,
चेतना के अभाव में रोया हूँ,
तुम चाहे मुझे जितना मारो,
मैं प्रतिकार नहीं कर पाउँगा,
तुम्हारी शाही सत्ता के आगे मैं झुकता ही जाउंगा.
निर्धन जनता की शत्रु पुलिस तुम्हारी अपनी है,
न्यायालय हैं ग्रास तुम्हारे, सारा प्रशासन चटनी है,
एक दिन, निर्धनता चीखेगी, भूख का तूफ़ान उठेगा,
तुम धुल का कण जैसे बिखरोगे,
उस दिन मैं फिर याद करूंगा -
अट्टहास तुम्हारा चुभता है.
अज़र
मई २२, २०२०
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